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कहानी का शीर्षक है :- मोहल्ला
तीन महीने पहले एक सरकारी चपरासी मेरे मोहल्ले में हर
दरवाज़े पर जाकर एक चिट्ठी सरका गया था। उसमें लंबी-
चौड़ी हिंदी में बस एक ही चीज़ लिखी थी। हमें अपना
मोहल्ला ख़ाली करना था, और उसके बदले में नए फ़्लैट
मिलने जा रहे थे सरकार की ओर से।Short sad story
याद शहर में मेट्रो ट्रेन बन रही थी और उसका रूट हमारे
इलाक़े से जाना ही तय हुआ था। दर्जनों परिवारों का
पुश्तों का साथ ख़त्म होने जा रहा था। सबने चुपचाप ज़हर
का चूंट पीकर सामान बांधना शुरु कर दिया था।
जा रही हूं मैं, और छूट रहा है अपनेपन और सुकून
का अड्डा–मेरा मोहल्ला। रोज़ एक घर एक ट्रक में उंडेला
जाता है। एक ट्रक में टूटी अलमारी, पलंग, बर्तन ही नहीं
जाते, यादें भी जा रही हैं। बचपन भी जा रहा है। इस घर
में ही तो मेरे पिता बूढ़े हुए और उनका बेटा, मेरा भाई, ख़ुद
पिता बन गया।Short sad story
मित्रा बाबू का वो मकान भी ख़ाली हो गया, जिसमें
बूबू-पाकू के साथ मैंने घर-घर खेलना सीखा था। गृहस्थी
का पहला सबक़ था वो खेल। दूध से जले हाथ पर मरहम
लगाने वाले निगम अंकल मकान छोड़ने से कुछ दिन पहले
दुनिया ही छोड़ गए। गर्मी के दिनों में स्कूल की छुट्टियां
शुरू होने के बाद हमारे मोहल्ले में शादीशुदा बेटियां भी मां
के घर लौट आती हैं।Short sad story
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मैं भी आज आई हूं, आख़री बार। और अपनी आंखों के
आगे उस दुनिया को, उस घर-आंगन को उजड़ते देख रही
हूं जिस घर में मेरे सपनों की बारात आई थी, जिस घर से
उठी थी डोली।Short sad story
पता नहीं जब मेरे घर की छाती पर खड़ा होगा एक
मेट्रो स्टेशन, एक मल्टीप्लेक्स तो मेरी नानी के लगाए आम
का क्या होगा? नाना के जामुन का क्या होगा और उस
नीम का क्या होगा जिसकी छांव में हम सात भाई-बहनों
ने स्कूल से कॉलेज तक का सफ़र ख़त्म किया। अम्मा के
सामने तो बावन साल जैसे किसी फ़िल्म के फ़्लैशबैक की
तरह गुज़र गए। कहती हैं, “अभी तो आए थे याद शहर,
अपने मोहल्ले! घर छोड़कर जाने की घड़ी भी आ गई?”
उजड़ रहा है हमारा मोहल्ला। खेलना-कूदना, लड़ना-
जूझना, मोहब्बत-जुदाई सिखाने वाला मोहल्ला। कमल-
गुड्डू का मोहल्ला, जोशी-शर्मा का मोहल्ला, जहां ट्रकों में
इन दिनों भरकर सामान नहीं, ज़िंदगी के सुनहरे दिन जा रहे
हैं।Short sad story
मैंने मां से कहा, “तो कब रवानगी है?”
वो बोलीं, “हमारा सामान तो एक-दो दिन में बंध
जाएगा। लेकिन दादी का क्या करें? कमरा बंद किए लेटी
रहती हैं। निकलने का नाम ही नहीं ले रहीं।”
मोहल्ले के बीचोबीच एक पुराने मकान में उस मकान
से भी पुरानी दादी रहती हैं। यूं तो रिश्ते में हम सबकी कुछ
नहीं, लेकिन असल में हम सबकी दादी हैं वो। दुबली-
पतली हैं, सफ़ेद साड़ी पहनती हैं। उनका नाम कोई नहीं
जानता। पति परलोक से बैठे-बैठे उन्हें देखते रहते हैं और
उनके बच्चे विदेश में या जाने कैसे दूर-परदेस में रहते हैं कि,
कभी पूछने नहीं आते। बड़े हो गए हैं, समझदार हैं। ज़रूर
कोई बात होगी कि जिसके कारण अस्सी साल की बूढ़ी
मां का ख्याल नहीं आता होगा।Short sad story
पर वो अस्सी साल की बूढ़ी मां, जिनका डबल प्रमोशन
होते-होते वो सारे मोहल्ले की दादी बन गई हैं, वो अकेले
थोड़े ही थीं!Short sad story
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हमारे मोहल्ले की शादियों में जब बहू विदा होती थी,
तो दादी का रोती हुई मां के बग़ल में खड़ा होना ज़रूरी
था। अन्नप्राशन में जब बच्चा किसी के हाथ से चावल का
पहला दाना खाता था, तो वो हाथ अक्सर दादी का होता
था। हां, पिछले एक साल से वो बिस्तर पर पड़ी हैं, काफ़ी
बीमार चल रही हैं। दादी कहती थीं, “उनके दिन गिने-चुने
रह गए थे।” डॉक्टर भी यही कहा करता था।
अकेली धार्मिक किताबें पढ़ा करती हैं अपने बिस्तर
पर लेटे-लेटे। चश्मे का नंबर बढ़ गया है। दादी आराम से
उठ नहीं सकतीं टेस्ट कराने के लिए और दुकानवाला यहां
आता नहीं। सो, उन्होंने एक देसी ट्रिक अपनाई है। अपने
चश्मे के ऊपर एक और चश्मा लगा लिया है। लगता है,
काम चल रहा है। किसी कॉमिक बुक की बूढ़ी सुपरहीरो
की तरह साड़ी और दो मोटे चश्मे लगाए उनके दिन गुज़रते
रहते हैं। दूसरा चश्मा एक और बूढ़ी महिला का है।
नौकरानी तो नहीं कहूंगी, कुसुमा ताई अब दादी की
सहेली बन गई हैं। तीस साल से सेवा जो कर रही हैं। दोनों
बूढ़ी अम्माओं ने आज चुप्पी साध रखी है। सुबह से एक
गिलास पानी तक नहीं पिया, जैसे घर में कोई मर गया हो।
क्या करती बेचारियां? घर ही मर रहा था।
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एक मोहल्ले की मौत होने वाली थी।Short sad story
छत की ओर देखते-देखते अचानक दादी बोलीं,
“कुसुमा! हमने आज तक कोई ज़िद नहीं की है। आज
करते हैं। हम ये मोहल्ला नहीं छोड़ेंगे।”Short sad story
मेरे घर के सामने एक छोटी-सी भीड़ ऐसे खड़ी थी, जैसे
किसी बहू की डोली उठने से पहले अनमने मन से भाई और
उसके दोस्त, गाड़ी और फ़ोटोग्राफ़र, पंडित का इंतज़ाम
करके खड़े हुए हों, बिदाई शुरू होने के इंतज़ार में।
आख़िरकार मेरे घर का भी नंबर आ गया था। मेरा
कमरा, मेरी छत, नीम, आंगन… जिसमें खेलते-खेलते कब
जवान हुए और कब मेरी डोली भी उठ गई… सब एक
फ़्लैशबैक की तरह आंखों के आगे से बहुत तेज़ी से गुज़र
गया।Short sad story
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दिल का कितना अच्छा, कितना साफ़ था वो मकान!
पपड़ी उखड़ती गई, बरसों पुताई नहीं हुई, फिर भी उस
मकान ने, उन बूढ़े होते दरख्तों ने कभी कोई शिकायत नहीं
की। उस छोटे से घर में हर कमरे की अपनी कहानी थी।
जगह की कमी हुई तो बरामदा भी एक कमरा बन गया।
पीछे का आंगन, मुंडेर और आम के साथ याराना निभाता
वो उसका पुराना यार नीम का पेड़। घर की दीवारें तो
पहले ही बोलती थीं। हम बड़े हुए तो भाई की कलाकारी
के रंग भी इन दीवारों पर उतरने लगे।Short sad story
घर का भूगोल बस इतना-सा था। दो छोटे कमरे, एक
रसोई, एक छोटा बरामदा। ये थी हमारी छोटी-सी दुनिया।
दो दीवानों की तरह याद शहर में आए मेरे मां-बाप का
आशियाना। वो अजनबियों की तरह आए थे इस बस्ती
में… इस शहर में… लेकिन इस मोहल्ले ने इस तरह उन्हें
अपना बनाया कि इस मोहल्ले को छोड़ा ना गया।
आज मोहल्ला उन्हें छोड़ रहा था। हर बिदाई पर भारी
पड़ रही थी उस घर से ये बिदाई।Short sad story
अपने-अपने घोंसले बना चुकीं, कभी इस घर की
चहकती बेटियां लौट आई थीं उस दिन। ट्रक में सामान
लद रहा था। अलमारी, पलंग, काला टेबल फ़ैन, पुराना
डबल बेड, लकड़ी का मंदिर–सबकुछ ट्रक में उड़ेला जा
रहा था। लेकिन घर फिर भी छूट गया था। ग्यारह बटा
नौ। पचास साल तक परिवार की शिनाख्त इस नंबर से
होती थी। ये शिफ्टिंग नहीं, पूरे घराने… कई जिंदगियों का
तबादला है।Short sad story
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कुछ दूर अपने घर की खिड़की से दादी ये सब देख
रही थीं। उनकी हमारी हज़ारों-हज़ारों यादें जुड़ी थीं इस
दहलीज़ से, जो मैं हमेशा के लिए अब पार करने जा रही
थी।Short sad story
दादी और उनकी नौकरानी कम फ्रेंड कम असिस्टेंट
कुसुमा अपने कमरे में बैठी थीं। हल्की-हल्की धूप छनकर
रौशनदान से और खिड़कियों से फ़र्श पर बिखरी हुई थी।
कुसुमा की बड़ी ज़िद के बाद दादी ने एक गिलास दूध
पी लिया था और एक केला खा लिया था। आखिरकार
बोलीं, “अगर हम इस बिस्तर से उठे ही नहीं तो ये कैसे
हमारा घर छीन लेंगे?”Short sad story
कुसुमा ने कहा, “जिज्जी, क्रांतिकारी ना बनो ज़्यादा।
हम लोग इसमें क्या कर सकते हैं? सरकार ने हुक्म दे दिया
है। मानना तो होगा ना?”Short sad story
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दादी बोली, “कुसुमा! तू नहीं समझेगी मेरी तकलीफ़।
लाहौर में रहते थे हम। बड़ा-सा मकान था। मैं वकील
थी। पापा सरकारी महकमे में सिविल इंजीनियर थे। दो
घर दूर मेरी सबसे अच्छी सहेली रहती थी–नसरीन, बहन
से भी प्यारी। ऐसा ही मोहल्ला था हमारा। फिर एक दिन
बंटवारा हो गया। किसी अंग्रेज़ ने कहीं दूर दफ्तर में बैठे
हुए काग़ज़ के नक़्शे पर हिंदुस्तान के दिल से पाकिस्तान
को निकाल दिया। दो भाइयों को जुदा कर दिया, जैसे हम
दो बहनें, नसरीन और मैं एक पल में जुदा हो गईं। बड़े-
बड़े दफ्तरों में बैठकर बड़े-बड़े अफ़सर लोग अक्सर क़लम
की एक दस्तख़त से, एक घिसी हुई मोहर लगाकर कितनी
ही ज़िंदगियों पर महीन-महीन तरीके से अपनी छाप छोड़
जाते हैं! नसरीन का दुपट्टा मेरे पास रह गया और हरे कांच
की चूड़ियां। फिर कभी नहीं मिली मेरी बहन। बस, ऐसे ही
छोड़ा था घर। तू नहीं समझेगी इस दर्द को कुसुमा।”
कुसुमा उलझ पड़ी। बोली, “जिज्जी हम नहीं समझेंगे?
जब गांव के पास बांध बना, तो उसे बनाने के लिए
हमारे गांव को धरती में मिलना पड़ा। बस एक बाल्टी,
दुई ठो धोती और पचास रुपईया लेकर चले थे घर से।
याद शहर आए तो कहीं एक झोपड़ी डाल ली और शहर
की बेइज्जती की जिंदगी को भी रोज कोस-कोसकर शहर
से चिपके रहे मजबूरी में। फिर एक दिन वो झोपड़ी भी
छोड़नी पड़ी। वहां एक बड़ी चमकीली इमारत जो बननी
थी! फिर यहां आए। हम नहीं समझेंगे घर छोड़ने की
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सड़कों पर गुम हो गईं।शहर के एक कोने में बड़े से सरकारी दफ़्तर के सामने
जाकर एक ऑटो रुका। पहले लाठी निकली, फिर दादी,
फिर कुसुमा। दोनों बूढ़े सिपाही जैसे ही मैदान-ए-जंग में
उतरे, समझो खलबली मच गई। लंबी-लंबी टीन शेड के
नीचे अपनी छोटी छोटी मेज़ों पर टाइपराइटर टिकाए नोटरी
अपनी चाय के कप हवा में थामे रहे। दूर-दूर से आए
अमीर-गरीब दलालों से मोलभाव करते-करते रुक गए।
बेढब मर्दो के जंगल में ये दो बूढ़ी महिलाएं क्या कर रही
थीं?Short sad story
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एक दलाल ने हिम्मत करके पूछ ही लिया, “माताजी,
काम क्या करवाना है? खेत-खलिहान का झगड़ा है? कोई
जेल में है? ओल्ड एज पेंशन?”
दादी ने उसे घूरकर देखा और बोली, “बड़े साहब से
मिलना है।”
दस मिनट बाद दादी शहर के सबसे बड़े अफ़सर
के दफ़्तर के सामने खड़ी थीं… वही आदमी जिसने भूरे
लिफ़ाफ़े में बंद करके मोहल्ले की मौत का फ़रमान भेजा
था।Short sad story
दोनों आगे बढ़ीं। खड़ा होकर चपरासी बोला, “हां
माताजी! कहां जाना है?”
दादी ने उसे घूरकर कहा, “बड़े साहब से मिलने।”
चपरासी ने कहा, “टाइम लिया है क्या?”
दादी ने कहा, “अफ़सर जनता की सेवा के लिए होते
हैं ना कि हम उनकी” और वो लाठी से दरवाज़ा धीरे से
धकेलकर अंदर घुस गईं।
अंदर अफ़सर अकेला बैठा था। थोड़ा झल्लाकर
बोला, “जी?”Short sad story
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दादी ने लाठी का हैंडल कसकर पकड़ा और दूसरे हाथ
से कुसुमा के कंधे का सहारा लिया। बोली, “आप मेरे
मोहल्ले को खाली करवाकर गिराने जा रहे हैं। मैं मोहल्ले
की वकील हूं।”Short sad story
अफ़सर एक मोटी-सी फ़ाइल लेकर आया, मेज़ पर
रखकर खोला और बोला, “देखिए माताजी, प्रॉब्लम ये
है…”
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दादी ने उसे टोका। बोली, “आप मुझे माताजी-
माताजी क्यों कह रहे हैं? मेरा एक नाम है। मिसिज़ घोष।
वकील हूं मैं।”Short sad story
कुसुमा दादी को देखकर उनके कान में फुसफुसाई,
“जिज्जी आपका नाम मिसिज़ घोष है?”
दादी कड़क होकर अफ़सर की ओर मुड़ीं। लेकिन इससे
पहले कि कुछ कहतीं, खांसने लगीं। नक़्शे पर अपनी
बूढ़ी-कांपती उंगलियां घुमाकर बोली, “आप रेल की
पटरियां यहां से क्यों नहीं ले जा सकते? बंजर ज़मीन है।”
“मैडम, ये सब बच्चों का खेल नहीं है। बड़े-बड़े लोग
दिमाग़ लगाते हैं, तब जाकर ये फैसले होते हैं।”
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दादी ने कहा, “मैं सिविल इंजीनियर की बेटी हूं बेटा।
मेरे पापा ने लाहौर में बड़े-बड़े इलाक़े बनवाए थे। सोचकर
देखिएगा। कुर्सी पर बैठा आदमी ज़मीन पर उतरकर, खड़े
होकर सोचता है तो बड़े-बड़े काम कर लेता है।”
अफ़सर ने कहा, “माफ़ कीजिएगा माताजी! मजबूर”
दादी और कुसुमा धीरे-धीरे वापस आ गईं। मेरा ट्रक
अब तक जा चुका था। चार घंटे बीत गए। फिर सात।
फिर दस। फिर अगली सुबह हो गई। दादी की खांसी
बढ़ती गई। बिस्तर पर लेटी थीं। दादी के चारों ओर हम
खड़े थे।Short sad story
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“जब मना किया था डॉक्टर ने तो क्यों गईं
संकटमोचन? आया डॉक्टर? तुम कुसुमा… तुमने इन्हें जाने
कैसे दिया?”Short sad story
कुसुमा तो एक कोने में जैसे मुज़रिम बने खड़ी थी।
दादी हल्के से मुस्कराई और धीरे से बोलीं, “मैंने तुम सबसे
झूठ बोला था। मैं कल संकटमोचन नहीं गई थी। मैं और
कुसुमा पिक्चर देखने गई थीं। सनिमा हॉल में। तीस साल
से पिक्चर नहीं देखी थी ना!”Short sad story
सब हंसने लगे। ख़ुश थे कि दादी ख़ुशमिजाज़ थीं।
दरवाज़े पर घंटी बजी। शायद डॉक्टर आ गया था।
लेकिन दरवाज़े पर डॉक्टर नहीं, बड़े साहब थे। अफ़सर
साहब के पीछे चार सिक्योरिटी गार्ड थे। अफरा-तफरी मच
गई। याद शहर का सबसे बड़ा अफ़सर दादी के दरवाज़े पर
खड़ा था।Short sad story
आकर बोला, “माफ़ी चाहिए। आप लोगों को मेरी
वजह से इतनी परेशानी उठानी पड़ी। मिसिज़ घोष कल
मेरे पास आई थीं। उनसे बात करने के बाद हमने एक
मीटिंग की, जिसमें मेट्रो के रूट को अलग कर दिया गया
है।”Short sad story
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हमारी तो लॉटरी खुल गई। सब ताली बाजकर
सेलीब्रेट करने लगे। सब ‘बैंक्यू, बैंक्यू’ बोल रहे थे।
अफ़सर ने कहा, “बैंक यू मुझे नहीं, मिसिज़ घोष को
कहिए। उन्होंने ही मुझे सिखाया कि अफ़सर जब अपनी
कुर्सी से उतरकर ज़मीन पर खड़े होते हैं तो बड़े-बड़े कमाल
कर देते हैं।”Short sad story
सबने कहा, “ये मिसिज़ घोष कौन है?” कुसुमा
उछलकर बीच कमरे में आ गई, जैसे जीतने वाले घोड़े का
मालिक अपने आप को इंट्रोडूस कर रहा हो।
“अरे जिज्जी! और कौन!”
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सबने अचरज में दादी को देखा। उनकी आंखें बंद थीं।
चेहरे पर संतोष भरी हल्की-सी मुस्कान थी। सबकी हंसी
बंद हो गई। सबको उनका मोहल्ला वापस दिलाकर दादी
ने मोहल्ला छोड़ दिया था।Short sad story