Chote baccho ki moral story in Hindi

Moral Story for Kids in Hindi | Bacho ki Motivational Kahani in Hindi


Story Title ब्रह्म राक्षस


गोपुर नामक गांव में ज्ञानसागर नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह उच्चकोटि का विद्वान था। किंतु अपने ज्ञान का कोई लाभ उसने समाज को नहीं दिया। राजा के आमंत्रण पर राज्य के वार्षिकोत्सव में ज्ञानसागर राजधानी गया। वहां उसके व्याख्यान से चमत्कृत राजा ने रत्नों भरी मंजूषा देकर रेशमी चादर उढ़ाकर उसकी चरण वंदना की और निवेदन किया कि आचार्य आप यहीं राजधानी में रहकर मुझे कृतार्थ करें। “किन्तु ज्ञानसागर ने राजा को विचार करूंगा।” कहकर टाल दिया और गोपुर लौट आया।


ज्ञानसागर वास्तव में अहंकारी विद्वान था, वह लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं करता था। राजा द्वारा प्राप्त रत्नों को बेचकर उसने अपने लिए एक सर्वसुविधायुक्त विशाल भवन का निर्माण करवाया और वहां रहते हुए अनेक ग्रंथों के अध्ययन एवं पांडुलिपियों के निर्माण में लगा रहा । लोगों को उसके रंग-ढंग पर आश्चर्य हुआ किन्तु हमेशा उसके भवन का द्वार बंद देखकर उदासीन हो गए। इस प्रकार अनेक वर्ष बीत गए।


Chote baccho ki moral story in Hindi
Moral Story for Kids in Hindi

संसार भ्रमण करते हुए भगवान आशुतोष से गौरी ने गोपुर के उस विशाल भवन को देखकर पूछा- भाग-वन्, इतना बड़ा भवन निर्जन क्यों दीख रहा है? महादेव ने ज्ञानसागर के विषय में जगद्जननी को सारी कथा बतला दी। रुष्ट होकर गौरी बोली- “देव इस ब्राह्मण को ज्ञान का इतना अहंकार। मैं इसे ब्रह्म राक्षस होने का शाप देती हूं। जब तक यह ज्ञान दूसरों को नहीं देगा इसकी मुक्ति नहीं हो सकेगी।” उसी रात भगवान शंकर ने ज्ञानसागर को स्वप्न में सचेत कर दिया।


सुबह उठकर ज्ञानसागर ने अपने भवन का निरीक्षण किया। सर्वत्र अव्यवस्था छाई हुई थी। समूचा बाग झाड़-झंखाड़ से असुंदर हो गया था। विशाल लौह कपाट में जंग लगने से वह खुलता ही नहीं था। उसने सुना, दो व्यक्ति बात करते जा रहे थे। पहले ने पूछा “क्या सचमुच यहां राक्षस रहता है?” दूसरे ने जवाब दिया- “हां भाई, जल्दी बढ़ चलो। यहां ब्रह्म राक्षस रहता है। अभी दिन है तो आ जा सकते हैं। रात को इस मार्ग में कोई चलता भी नहीं। उस खिड़की के प्रकाश में रोज रात कोई परछाई आती जाती दिखती है।


ज्ञानसागर ने विचार किया क्या सचमुच वह ब्रह्म राक्षस है? उसने उन लोगों को देखना चाहा जो उसके बारे में बातें कर रहे थे। सोचते ही उसकी ऊंचाई दीवाल से ऊपर उठ गई। दोनों. व्यक्ति ग्रामीण थे। उसे इस प्रकार दीवाल से ऊंचा उसके विकृत चेहरे को देख वे चिल्लाते हुए भाग खड़े हुए। ज्ञानसागर ने स्वयं की ऊंचाई देखकर आश्चर्य किया, उसने सोचा इतना लम्बा होना वास्तव में भयप्रद है। और यह विचार आते ही वह पूर्ववत हो गया। स्वयं में इस प्रकार के परिवर्तनों को पाकर ज्ञानसागर हैरान रह गया।


Short Moral story For Adults


भवन के कक्ष में जाकर उसने अनेक वर्षों बाद दर्पण में अपने शरीर का निरीक्षण किया। वह वीभत्स रूप रंग का हो चुका था। उसे दुःख हुआ। अब वह पछताया। उसने ज्ञान के अहंकार में मानवीय गुण खो दिए थे। वह राक्षस हो चुका था। अब वह अपना ज्ञान देना चाहता था। पर उसे मालूम था कोई उसके पास नहीं आएगा। वह मनुष्य होने पर किसी को ज्ञान न दे सका भला अब राक्षस से कौन पढ़ेगा। उसका मन हाहाकार करने लगा। वह मुक्ति चाहता था।


धीरे-धीरे समय बीतने लगा । गोपुर ने बड़े नगर का रूप ले लिया था। सुभागा नामक एक स्त्री जो गुणनिधि नामक पुत्र की मां थी अपने बालक को लेकर गुरुकुल गई। पर बालक के पिता का नाम नहीं बता पाने के कारण अपमानित और दुःखी होकर उस मार्ग से जा रही थी। उस निर्जन भवन को देखकर बालक गुणनिधि ने अपनी मां से पूछ लिया “मां यहां राक्षस रहता है ऐसा सब लोग क्यों कहते हैं ?” सुभागा ने उत्तर दिया “वह राक्षस था नहीं बेटा। ज्ञान के अहंकार ने उसे राक्षस बनाया है। अन्यथा उसके समान विद्वान व्यक्ति इस राज्य में कोई नहीं।” कहकर ने रास्ते में चलते हुए अपने पुत्र सुभागा को ज्ञानसागर की कथा सुनाई।


moral story in Hindi for kids
Moral Story for Kids in Hindi

दूसरे दिन बालक गुणनिधि ने आकर उस जंग लगे विशाल द्वार के पास आकर आवाज लगाई “द्वार खोलो, मैं भीतर आना चाहता हूं।” ज्ञानसागर ने खिड़की से झांककर देखा, कोई बालक द्वार के पास खड़ा आवाजें लगा रहा है। उसने पूछा- “तुम भीतर क्यों आना चाहते हो।” बालक ने हाथ जोड़ प्रणाम कर कहा- “मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं। द्वार खोल दीजिए।


” ज्ञानसागर ने आश्चर्य से पूछा ‘क्या तुमने मेरे बारे में लोगों से सुना नहीं? मुझे देखकर तुम्हें डर नहीं लग रहा है।” गुरु से डर कैसा? मैं अपनी माता की इच्छा पूरी करना चाहता हूं। मुझे ज्ञान दान दीजिए, द्वार खोल दीजिए ज्ञानसागर ने उत्तर में कहा- “ऐसे नहीं, कल अपनी मां को लेकर आना। वे अनुमति देंगी तभी मैं तुम्हें ज्ञान दूंगा। वहीं तुम्हारी अभिभावक हैं। तुम अभी बालक हो। गुणनिधि ने विनयपूर्वक कहा “अच्छा मैं ऐसा ही करूंगा।” कहकर वह चला गया।


दूसरे दिन बालक अपनी माता को जिद कर ले ही आया। माता ने रोकर कहा “नहीं मुझे आपसे कोई भय नहीं। मैं अपने पुत्र को विद्वान देखना चाहती इसे आप ज्ञानी बनाइए।” ज्ञानसागर. ने पूछा- “इसे 11 वर्ष तक मेरे पास छोड़कर रह सकोगी?” सुभागा ने पुत्र के सिर पर हाथ फेर कर कहा “अवश्य छोड़ सकूंगी आचार्य।” कहकर उसने पुत्र का माथा चूमकर अनुमति मांगी। अनेक वर्षों बाद वह लौह द्वार आवाज करता हुआ खुला। गुणनिधि ने मां से प्रणाम किया और भीतर चला गया। सुभागा देवताओं को मनाती हुई लौट गई। द्वार बंद हो गया।


ज्ञानसागर गुणनिधि को अध्यापन द्वारा उसके ज्ञान की प्यास को तृप्ति देने लगा। धीरे-धीरे उस बालक के साथ वह भी सहज होने लगा। लोक व्यवहार की अनेक बातें उसे मालूम हुई। कुछ वर्षो में उसने प्रतिदिन मेहनत करके अपने भवन को पूर्व अनुसार सुंदर और समृद्ध किया। किन्तु द्वार पूर्ववत बंद ही रहते। वह शिष्य के साथ ज्ञान चर्चा में सुखी होता।


गुणनिधि हमेशा उसके साथ रहता। वह देखता कि उन्हें किसी वस्तु की कमी नहीं हुई। भूख लगते ही रसोई से भोजन की खुशबू आने लगती और दोनों गुरु शिष्य तृप्त होकर भोजन करते। जाने कब और कैसे यह व्यवस्था हो जाती। यद्यपि उसने यहां किसी तीसरे को कभी नहीं देखा। पर वह अपने गुरु के प्रति आश्वस्त और निर्भय था। मन लगाकर ज्ञानार्जन करता।


एक शाम गुरु ने अपने शिष्य को अपने पास बुलाकर कहा- “पुत्र गुणनिधि आज तुम्हारी शिक्षा समाप्त हो गई। कल सुबह तुम्हारी माता तुम्हें लेने आएगी। मैंने भीतर के ज्ञान को एक-एक बूंद तुम्हें दे दिया है। इसका उपयोग समाजहित में करना और कभी ज्ञान का अहंकार मत करना। सुनकर शिष्य ने गुरु के चरण स्पर्श कर ऐसा ही करने की प्रतिज्ञा की।


दूसरी सुबह सुभागा ने अपने पुत्र को दरवाजे के बाहर खड़े होकर आवाज देकर बुलाया। द्वार खुलने पर उसने देखा एक सुदर्शन युवक माथे पर ज्ञान की गरिमा लिए उसके चरणों में झुक रहा है। सुभागा ने सीने से लगाकर गुणनिधि का माथा चूमते हुए कहा- “चलो पुत्र घर चलें।” गुणनिधि ने मां का हाथ पकड़ कहा- “हां मां, पर पहले मैं अपने गुरु से अनुमति ले लूं। आओ गुरुदेव के पास उस वृक्ष के पास चलें।


वापस जाकर माता-पुत्र ने देखा गुरु, वृक्ष के नीचे समाधिस्थ बैठे हैं। उनके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। रोते हुए पुत्र को सुभागा ने सान्त्वना दी। गुणनिधि ने अपने गुरु का अंतिम संस्कार वहीं भवन के आंगन में किया और माता के साथ द्वार के बाहर चल पड़ा। थोड़ी दूर चलकर उसने पलटकर देखा। साग भवन धू-धू जल रहा है।


Moral of the Story- हमें घमण्ड कभी नहीं करना चाहिए घमण्ड इंसान को भी राक्षस बना देता है , प्यार और ज्ञान बाँटने से बढ़ता है ना की कम होता है।


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