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कहानी का शीर्षक है:- धूप का कोना–पार्ट 1
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याद शहर के सिविल लाइंस मोहल्ले में उस दिन लग रहा था कि सभी घरों में एक साथ शादियां हो रही है। सारे पापा लोग दफ़्तर से जल्दी आ गए थे। बच्चे उस दिन खेलने ही नहीं गए और सभी दादियां ज़िद करके कह रही थीं कि हमें भी जाना है।
“अरे कहां जाना है भाई सबको आज?” पप्पू प्रेसवाले ने अपने बेटे जूनियर पप्पू से पूछा।
(बात दरअसल ये है कि पप्पू जी इतने ही आलसी थे कि जब उनका लड़का पैदा हुआ तो आलस और अज्ञानता के मारे कोई नाम सोच ही नहीं पाए, सो बेटे का नामजूनियर पप्पू रख दिया, और दुई ठो पप्पू हो गए उनके घर में!)
खैर, हम भी कहां-कहां भटक-भटक जाते हैं… वैसे वो दिन ही भटकने वाला था। सो, सीनियर पप्पू ने अपने माथे से पसीना पोंछा और पाजामे में उसी हाथ को घिस लिया। फिर अपने प्रेस का ढक्कन उठाकर उसमें कोयला डाला और ज़मीन पर पड़ी चादर पर पड़ी छप्पन साड़ियों के गट्ठर को देखा,
फिर जूनियर पप्पू से कहा, “लड़के, हम तुमसे फिर कुछ पूछ रहे हैं। आज कहां जाना है सबको? छप्पन साड़ियां तो हमने तब भी प्रेस नहीं की थीं जब इंदिरा गांधी की मोटर याद शहर की सड़क पर आई थी। आख़िर माजरा क्या है?”
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जूनियर पप्पू अख़बार पर तरीके-तरीके के जानवरों की तस्वीरें खींच रहा था। कुछ जानवर तो ऐसे थे कि ऊपरवाले की बनाई कुदरत में दिखाई भी ना दिए हों कभी। उसने सिर उठाकर अपने पिता की तरफ़ देखा तक नहीं और बोला, “हमें क्या पता कि सब कहां जा रहे हैं?” धूर्त था वो।
असल में सब पता था उसे। उसे मालूम था कि आज क्यों छप्पन साड़ियां इतनी ताकीदी से, इतनी अर्जेन्सी में प्रेस कराई जा रही हैं। उसे मालूम था कि उसकी उम्र के मोहल्ले के सारे लड़के आज क्यों क्रिकेट खेलने नहीं आए। क्यों ये चाटवालों के ठेलों का कारवां शिवाजी की फौज की रफ़्तार से परेड ग्राउंड की ओर चला जा रहा था।
जूनियर पप्पू अपनी जगह से उठा और अपने बाप की प्रेस की हुई ग्यारह साड़ियों का बंडल उठाया और बोला, ”हम ये बांटके आते हैं।
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हमने बताया था ना आपको कि धूर्त था जूनियर पप्पू और वहां से खिसक लेने की तैयारी कर रहा था ताकि बाक़ी साड़ियां बाप को बांटनी पड़ें। उसने ग्यारह साड़िया ऐसे बांटी कि जैसे बाढ़ के बाद एनजीओ वाले खाने के पैकेट बांटते हों।
फिर उसने जेब से एक चार इंच की कंघी निकाली, हाथ में थूक लगाकर बाल सेट किए और चल पड़ा, बाक़ी सैकड़ों लोगों की तरह परेड ग्राउंड की ओर। सिविल लाइंस के इतिहास में आज बहुत बड़ा दिन था। आज याद शहर की सबसे बड़ी कलाकार, जूनियर पप्पू जैसे हज़ारों दिलों की धड़कन–हिना-अपनी स्पेशल ऑर्केस्ट्रा पार्टी के साथ रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत करने जा रही थी।
परेड ग्राउंड में तो समझो कि जैसे बलवा हो रहा था। रेलमपेल, ठसाठसी ऐसी कि पीएसी के कम-से-कम पच्चीस जवान डंडे लेकर ड्यूटी पर थे। चौकन्ने होकर खड़े थे, और साथ-साथ ये भी सोच रहे थे कि उनकी भाभियों, मामियों, चाचियों को जाने पास मिले कि नहीं। अगर जवानों की ही भाषा में कहें तो स्थिति तनावपूर्ण तो थी, लेकिन नियंत्रण में थी।
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मैदान में एक ओर भव्य स्टेज बनाया गया था। चमचमाती लाइटें, कार्डबोर्ड के चांद और तारे, लाल साटन के पर्दे और साइड में लकड़ी का एक बड़ा-सा पोडियम, जिस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘जनता टेंट हाउस एंड साउंड सर्विस।’
दूसरी ओर चाटवालों की बिक्री तो ऐसे हो रही थी कि जैसे आज के आज ही लखपति हो जाएंगे। बग़ल में बुढ़िया के बाल बिक रहे थे। बुढ़िया के बाल यानी गुलाबी कैंडीफ़लॉस। गन्ने के रसवाले के ठेले पर तो ऐसे भीड़ थी जैसे अमृत बिक रहा हो और आखरी दिन हो ख़रीदकर पी लेने का। भीड़ बेचैन हो रही थी और एक लफंगानुमा लड़का दूसरे लफंगानुमा लड़के से बोला, “क्यों जी, वो गाएंगी आज, इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मोरा…?”
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दूसरे लफंगे ने बड़े अधिकार से जवाब दिया, “अमां पागल हो गया है क्या? उस गाने के बिना भी कोई हिना ऑर्केस्ट्रा नाइट पूरी हुई है भला? पिछले साल तो मैंने उस गाने पर 160 रुपए लुटाए थे, वो भी दस-दस की पत्तियों में।” कुछ लोगों ने तो बेसब्री में जमकर सीटियां भी बजाना शुरू कर दिया।
भीड़ का मूड देखते हुए एक दुबला-पतला आदमी बड़े-बड़े लाल चेकवाली बुशर्ट और पीले बेल बॉटम में स्टेज पर आया और माइक को एडजस्ट करने के बाद बोला, “भाइयों और बहनों, बस कुछ ही देर का इंतज़ार और। स्टेज के पीछे पधार चुकी हैं याद शहर की सबसे बड़ी फनकारा, हिना।” ऑर्केस्ट्रा पार्टी ने कुछ छन-छन करके लोगों का ब्लडप्रेशर हाई रखने की कोशिश की। तालियां बजने लगीं।
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स्टेज के पीछे ग्रीन रूम में किसी ने बाथरूम में नल बंद करके पूछा, “कितने लोग आ गए हैं?” किसी मुनीम टाइप आदमी ने जवाब दिया, “मैडम, दो-तीन हज़ार होंगे।” फिर बाथरूम के दरवाज़े से वो बाइस-तेईस साल की हसीना गोटे-ज़री वाली ड्रेस में निकली… वही हसीना थी जिसका उस शाम को इंतज़ार था।
हिना ने कहा, “जब पांच हज़ार हो जाएं तो बताना। ये हिना ऑर्केस्ट्रा नाइट है, कोई गांव की नौटंकी नहीं।” सिविल लाइंस की उस चहल-पहल से क़रीब पांच किलोमीटर दूर गली नंबर सत्ताइस बटा ग्यारह में एक बड़े-से मकान के छोटे-से कमरे में एक आदमी ध्यान से कुछ लिख रहा था।
ये था याद शहर का एक उभरता हैंडसम शायर कबीर समथिंग। नाम सही में याद नहीं मुझे उसका पूरा। नया-नया शायर था। पेशे से डिग्री कॉलेज में अंग्रेज़ी का लेक्चरार था और रात को अपने कमरे में बैठकर कुछ और ही बन जाता था।
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वो दुबला-पतला अच्छी शक्ल-सूरत वाला अनाड़ी शायर एक नई ग़ज़ल लिख रहा था और मुशायरा स्टाइल प्रैक्टिस कर रहा था, “मैं तेरे प्यार का ज़हर चला हूं पीने अब मुझे ये ज़िदंगी है वैसे भी गवारा नहीं मैं ख़्वाब में हूं चला नज़रों के सफीने अब तेरे बिना है समंदर का अब किनारा नहीं मैं तेरे प्यार का…’
इतने में दरवाज़ा धड़ से खुला और शायर का सबसे अच्छा दोस्त और डिग्री कॉलेज में हिंदी का टीचर अहमद वारसी धड़धड़ाते हुए अंदर चला आया। “अमां तुम तैयार नहीं हुए अब तक? वहां ऑर्केस्ट्रा चालू हो गया कब का।” कबीर ने कहा, “मैं ये बाज़ारू चीजें देखने नहीं जाता। मैं नहीं जानता किसी हिना-पिना को।” अहमद ने कहा, “ऑर्केस्ट्रा में गाती है तो बाज़ारु हो गई?”
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कबीर ने कहा, “इतने मरे जा रहे हो तो ख़ुद ही क्यों नहीं चले जाते?” अहमद बोला, “यार तू जानता है मुझे स्कूटर चलाना नहीं आता। तेरे बिना मैं वहां पहुंच ही नहीं सकता।” बड़ी मिन्नतों के बाद कबीर ने क़मीज़-पैंट बदली, जूते-मोज़े पहने और वो दोनों स्कूटर पर सुनसान सड़कों पर चल दिए। परेड ग्राउंड में तो घुसना भी मुहाल।
पुलिस ने बैरीकेड लगाकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। अंदर कार्यक्रम पूरे शबाब पर था और हिना अपना सुपरहिट गाना ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना…’ गा रही थी। कबीर ने स्कूटर पार्क किया, और बड़बड़ाता हुआ यही सोच रहा था कि घर चला जाए। तभी कनात के पीछे से उसका दोस्त प्रदीप निकला, “अरे! तू यहां? शेक्सपीयर की मौत हो गई है क्या? अंदर घुसने की जगह नहीं मिली? चल-चल, मेरे साथ आ जा।
मैं ऑर्गनाइजिंग कमेटी में हूं यार।” वो लोग तेज़ी से चलते हुए ग्रीन रुम की ओर चले गए। प्रदीप और अहमद तो प्रोग्राम देखने के लिए भीड़ में जाने कहां गुम हो गए, शायर ग्रीन रूम में अकेला रह गया। ना जाने कब उसकी आंख लग गई, ना जाने कब प्रोग्राम ख़त्म हो गया, ना जाने कितनी तालियां-सीटियां बजीं, ना जाने कब ग्रीन रूम का दरवाज़ा खुला और ना जाने कब ग्रीन रुम में याद शहर की स्टार… खूबसूरती की देवी… हिना दाख़िल हुई।
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कबीर को देखकर वो चौंक गई, “तुम! तुम कौन हो?” “मैं कोई भी हूं, तुम कौन हो?” आधी नींद से उठाए जाने की झुंझलाहट कबीर की आवाज़ में साफ़ सुनाई दे रही थी। हिना ने ज़िंदगी में कई उतार-चढ़ाव देखे थे। पिता बिज़नेसमैन थे, उन्हें बेटी के संगीत के प्यार में सिर्फ पैसा ही नज़र आता था। हर शो के आखिर में हज़ार रुपए जो मिलते थे। मां भी कोई देसी टाइप नहीं थी। उनके लिए बेटी एक ख़ज़ाने की चाबी भर थी। 22-23 साल की उम्र में हिना अचानक इस छोटे-से शहर की बड़ी स्टार बन गई थी।
हिना उम्र से पहले ही बड़ी हो गई थी। दिल कड़ा कर चुकी थी। बचपन कभी देख ही नहीं पाई थी। रोज़ अजनबियों से मिलती थी–घाघ इवेंट मैनेजर्स से, गॉसिप ढूंढ़ते लोकल पत्रकारों से और चंदा लेने आए टुटपूंजियों से। लेकिन किसी अजनबी में आजतक वो अदा नहीं देखी थी जो अभी इस अजनबी में दिखाई दे रही थी। कुछ ख़ास था उसमें। शायरी उसके चेहरे पर लिखी हुई थी।
छोटी-सी उम्र में स्टेज पर धकेल दी गई सच्चे प्यार के ख्याल से प्यार करनेवाली वो खूबसूरत-सी लड़की पहली नज़र में इस अजनबी से प्यार कर बैठी थी। कबीर ने कहा, “मैं इंग्लिश पढ़ाता हूं डिग्री कॉलेज में, और शायर हूं–छोटा-मोटा शायर। प्रदीप मुझे यहां बिठाकर गया है। आप कौन हैं?” “मैं हिना हूं,” सिर्फ इतना कहा था उसने, लेकिन एक गुरुर था उसकी आवाज़ में, जैसे उसका नाम नहीं, जीतने वाले लॉटरी टिकट के आख़री चार नंबर हों।
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प्यार-मोहब्बत की शायरी करने वाला वो नौजवान शायर उसकी आंखों में प्यार नहीं पढ़ पाया था। नासमझ था वो, क्योंकि हिना की क़ातिलाना आंखें बोलती हुई किताबें थीं। हिना की आंखों पर भी तरह-तरह के इल्ज़ाम थे। याद शहर के लफंगे कहते थे कि हिना जी की आंखों के खिलाफ़ एफ़आईआर दर्ज होनी चाहिए। लाशें बिछाने वाली ऐसी खूबसूरत आंखों को भला ऐसे खुले में कैसे छोड़ दिया जाए?
हिना की आंखों को आज अपने टक्कर की आंखें मिल गई थीं। एक शायर की आंखें, जो सब जानती थीं, लेकिन ख़ामोशी पहनकर घूमा करती थीं। एक अनकही चाह, एक अनकहे दर्द में धुली हुई आंखें, सवाल करती हुई आंखें। हिना ने पूछा, “मेरा प्रोग्राम नहीं देखा आपने?” कबीर ने कहा, “माफ़ी चाहता हूं, मुझे फ़िल्मी गाने सुनने का कोई शौक़ नहीं है।”
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वो बोली, “यहां मैं आई वॉन्डर्ड लोनली एज ए क्लाउडतो नहीं पढ़ सकती ना पांच हज़ार लोगों के सामने?”उसने कहा तो कबीर चौंक गया। ये लड़की जो अभीस्टेज पर से फ़िल्मी गाने गाकर आ रही थी, वो विलियमवर्ड्सवर्थ की कविता जानती थी!हिना ने कहा, “कल चार बजे घर आ जाइएगा।अदरक की चाय पिएंगे और आपको अपनी कविताओंकी किताब दिखाऊंगी।
” पत्थरों का अध्ययन करने वालेभू-विज्ञानी कहते हैं कि अगर किसी पत्थर पर बहुत लंबेसमय तक पानी पड़ता रहे तो आख़िरकार पत्थर पर भीनिशान पड़ जाते हैं। शायर कबीर समथिंग ये नहीं जानताथा, लेकिन उस सख़्त पत्थर पर थोड़ी देर के लिए पड़नेवाली हिना की नज़रों ने कुछ वो करिश्मा कर दिखाया थाजो हज़ारों साल ज़िद पर अड़ी पानी की बूंदें कर पाती हैं।
अगले दिन कबीर कुछ बेचैन रहा। ध्यान जाने कहांभटकता रहा कि क्लास में दो बार बायरन को वर्ड्सवर्थकह गया और इंटरवल में परेशान होकर स्टाफ़रूम में जाकरबैठ गया। अहमद ने भी Ph.D. झक्क मारकर की नहींथी। बेचैन शायरों की बेचैनी का राज़ समझ आता थाउसे। बोला, “लगता है हिना की निगाहें तुम्हारे चेहरे से हटी नहीं हैं अब तक!”
“क्या बकवास कर रहा है?” कबीर ने कहा। इरादा था नहीं, फिर भी पूछ बैठा, “वैसे ये हिना रहती कहां है?” कबीर को इस बात का इल्म नहीं था कि ज़िंदगी को बदल देने वाले लम्हे कई बार बिना बताए कोई और चेहरा ओढ़कर हमारे दरवाज़े पर एक फ़क़ीर की तरह आते हैं। चार बजे ज़िंदगी को बदल देने वाले ऐसे ही लम्हे में कबीर हिना के दरवाज़े पर खड़ा था।
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इससे पहले कि वो हिना के घर का दरवाज़ा खटखटाता, कबीर ठिठक गया। अंदर से ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने की, बर्तनों के गिरने की आवाज़ आ रही थी। फिर सिसकियों की आवाज़ से सहमकर कबीर पलटने ही वाला था कि खिड़की से किसी ने बेरुखी से पूछा, “क्या है? किससे मिलना है?”
इससे पहले कि कबीर जवाब दे पाता, दरवाज़ा खुल गया और हिना वहां खड़ी थी। हिना ने कहा, “अरे, चार इतनी जल्दी बज गए? पता ही नहीं चला!” उसका चेहरा जैसे उजड़ा हुआ था। रोई हुई आंखें, बिखरा हुआ काजल था। माथे पर दाहिने तरफ़ हल्के-से चोट का निशान था, जिस पर लगे एंटीसेप्टिक की महक अभी भी ताज़ा थी। कबीर कुछ समझ नहीं पाया।
हिना ऐसे मिली जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। “अंदर आइए ना। बैठिए। अभी चाय बनाती हूं। नौकर से अदरक मंगवाई है… इनसे मिलिए, ये मेरी मां हैं।” सामने वही औरत खड़ी थी जिसने खिड़की से झांककर कबीर से अजीब तरीके से उसका परिचय पूछा था। औरत ने कहा कुछ नहीं, भीतर चली गई।
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कबीर हिना की ओर देखता रहा, एकटक। “आप ठीक तो हैं। ये चोट कैसे…?” “मैं एकदम ठीक हूं। जरा-सा फिसल गई थी बस,” हिना ने कहा तो कबीर के जी में आया कि कह दे, गाती इतना अच्छा हो, लेकिन झूठ कितना ख़राब बोलती हो। कहा कुछ नहीं, लेकिन समझ गया कि इस खूबसूरत चेहरे और इस चमक-दमक भरी जिंदगी के पीछे गहरी तकलीफ़ छुपी थी।
हिना के मां-बाप स्टेज पर उससे गाने गवाकर दूसरों का मनोरंजन कराते थे और घर में उस पर हाथ उठाते थे। कबीर और हिना में प्यार हो जाना लाज़िमी था। दोनों एक ऐसे सफ़र के आधे-अधूरे मुसाफ़िर थे जिनका सफ़र एक-दूसरे के साथ ही पूरा हो सकता था। वरना मोहब्बत के ख़ुदा यूं ही ऐसे मुसाफ़िरों को एक-दूसरे से नहीं मिलवाते। हफ़्ते गुज़रते गए, फिर दो महीने।
कहते हैं कि विपरीत आकर्षित करते हैं, ऑपोजिट्स अट्रैक्ट। एक-दूसरे से अलग थे हिना और कबीर। कबीर पत्थरदिल शायर था, और प्यार की बातें उसे अब तक कविताओं, ग़ज़लों, नज़्मों में ही अच्छी लगती थीं। हिना ने दर्द की दुनिया से परे अपने ख्यालों में एक दूसरी ही दुनिया रच ली थी। प्यार उसे मिला नहीं कभी, लेकिन प्यार पर फिर भी यक़ीन रहा।
कबीर भी बदलने लगा था और प्यार के नश्तर का धीमा दर्द अपने सीने में महसूस करके आईने में खुद को देखकर मुस्कुराने भी लगा था।
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हिना और कबीर अक्सर एक-दूसरे से मिलने लगे। हिना पहली बार में ही खुल गई थी, अपनी जिंदगी के बारे में ऐसे कबीर को बताया सबकुछ जैसे सालों का कोई भरोसेमंद दोस्त मिल गया हो उसे। बताया कि कैसे अक्सर घर में उसे पीटा जाता था, कैसे आंसुओं को मेकअप में छुपाकर दिल में खंजर टांगे वो स्टेज पर ख़ुशी के गीत गाया करती थी।
तबीयत खराब होने की वजह से किसी शो को ना कह देना या किसी अनजान लड़के से बात कर लेना वो गुनाह होता था जिसकी सज़ा हिना पर हाथ उठाकर ही दी जाती थी। कबीर हिना को जितना क़रीब से जानता गया, उतना उसका क़ायल बनता गया। वो सोच भी नहीं सकता था कि कार्डबोर्ड के चांद-तारों और बिजली के चमचमाते लट्ठओं के नीचे फ़िल्मी गाने गाती लड़की की ज़िंदगी में इतनी तकलीफें होंगी, और इन गहरे दुखों के बावजूद वो चेहरे पर चेहरा डाले मुस्कुराना सीख गई होगी।
उसको भी कबीर से मिलकर वो सुकून मिलता था जो उसे आजतक किसी के साथ नहीं मिला। ऐसा लगता था जैसे सुर और शब्द मिल गए हों। वो ख़ुद को उसके साथ पूरा महसूस करने लगी थी।
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अब वक़्त आ गया था कि पत्थर पानी की बूंद को बता दे कि वो पिघल चुका था, पूरी तरह। याद शहर के बाहर सनसेट पॉइंट नाम की एक जगह, उस शाम दोनों मिले। कबीर ने कहा, “मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं।” हिना भी कुछ कहना चाहती थी कबीर से। सूरज ढलने को था, और कबीर एक नई सुबह की उम्मीद में हिना के सामने इजहार के लिए तैयार बैठा था।
शायर के पास लफ़्ज़ कम पड़ने लगे थे। कबीर कोई शेर, कोई गीत नहीं कह पाया। बस इतना कहा, “मैं तुमसे प्यार करता हूं। सोचा नहीं था कि कभी किसी से प्यार करूंगा। लेकिन अब सोचता हूं कि इससे ज़्यादा कभी किसी से प्यार नहीं कर पाऊंगा।” हिना चुप रही। फिर धीरे से कहा, “मैं भी तुमसे प्यार करती हूं।” फिर एक लम्हे की ख़ामोशी पसरी रही थोड़ी देर दोनों के बीच।
कबीर उसी लम्हे में एक पूरी जिंदगीजी जाता, जो हिना ने उसे वास्तविकता का क्रूर आईना नादिखाया होता। “मम्मी-पापा मुंबई भेज रहे हैं मुझे, एक T.V.रियलिटी शो में हिस्सा लेने के लिए। वो चाहते हैं कि अबहम मुंबई में रहने लग जाएं। पता नहीं आज के बाद मैंतुमसे मिल भी पाऊंगी या नहीं…,” हिना ने गीली आंखों सेकबीर को देखा और बिना उसके जवाब का इंतज़ार किएपलटकर चली गई।सूरज और कबीर, दोनों डूबते हुए, उसको बस देखते रहे।
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