Motivational story of father and son in Hindi | Emotional story of a father and son In Hindi 2021
कहानी का शीर्षक है:-ब्लैक और वाइट
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नाश्ते की मेज़ पर फिर से झगड़ा हो गया था। मैं चैन से अपने आलू के परांठे पुदीने की चटनी में डुबो-डुबोकर खा ही रहा था कि पापा ने फिर से वही टॉपिक छेड़ दिया था। बोले, “सिद्धांत, मुझे इस मामले पर और बहस नहीं करनी है। इट्स फ़ाइनल। तुम हॉस्टल जा रहे हो। पांच दिन में फ़ॉर्स जमा करने की आखरी तारीख़ है। मैंने कॉलेज के ट्रस्टी से बात कर ली है।” मेरे अंदर गुस्सा भरा हुआ था। मैंने पापा से कहा, “पापा प्लीज़! एक बार फिर मैं हॉस्टल नहीं जाना चाहता। प्लीज़ मुझे फ़ोर्स मत कीजिए आप लोग। मुझे नहीं पसंद वो गंदी डॉरमेट्रीज, गंदी पीली दाल जो पूरे साल मिलती है।
और मैं वो बाथरूम्स नहीं शेयर करना चाहता। क्यों आप पीछे पड़े हैं? इतना बड़ा बोझ हूं क्या? मेरे फ्रैंड्स यहां हैं… आप लोग हैं… सब ठीक तो है… तो मुझे क्यों भेजा जा रहा है? आप बोर्डिंग गए थे… ग्रेट… मैं नहीं जाना चाहता ना।” पापा मम्मी की तरफ़ घूमे और बोले, “देख लिया आपके लाड़-प्यार का नतीजा? मैंने हॉस्टल में ही वो डिसिप्लिन सीखा और उसी की वजह से, अपनी मेहनत की वजह से आज मैं यहां पर हूं। गायत्री, समझाओ उसे… आज शाम तक मुझे वो फॉर्स भरे हुए चाहिए।” मैंने
Emotional story of a father and son
कुछ नहीं कहा, बस गुस्से में स्कूल पहुंच गया। अपने गैंग को ढूंढ रहा था कि कोई मिले तो थोड़ा हंसी-मज़ाक़ हो, ज़रा हल्का महसूस हो। लेकिन कोई दिख ही नहीं रहा था। गैंग कैंटीन में नहीं था… प्लेग्राउंड में नहीं दिखा… आखिरकार देखा क्लास में मज्मा लगा था। क्लास में बड़ा शोर था। मैंने सोचा, लगता है, रिज़ल्ट्स की तारीख़ अनाउंस हो गई थी। मैंने ये भी सोचा कि आज सारे फ्रैंड्स से कहूंगा कि फ़िल्म देखने चलते हैं। अभी मस्ती कर लें, रिज़ल्ट्स में जो आएगा, भाड़ में जाए।
कम-से-कम ये हॉस्टल की चिक-चिक से कुछ मन तो हटेगा। अचानक सबने मुझे देखा और एक सैकंड में शोर ख़ामोशी और फुसफुसाहट में बदल गया, जैसे किसी ने गर्म दहकती हुई कढ़ाही को बर्फीले पानी में फेंक दिया हो। मैंने कहा, “क्या हुआ यार? मैं शर्मा सर नहीं हूं!’ मैंने देखा कि सारी क्लास एक अख़बार में कुछ देख-देखकर उसी के बारे में बात कर रही थी। मेरे दोस्त अब वो अख़बार एक डेस्क के पीछे छुपाने की कोशिश कर रहे थे।
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मुझे समझ ही नहीं आया कि ये क्या गोरखधंधा है? ये क्या हो रहा था? ये मार्च के महीने में अप्रैल फूल जैसा सीन तो नहीं था? मैंने कहा, “क्या छुपा रहे हो यार? मेरे पहले प्यार, एंजलिना जोली की तस्वीर छपी है क्या?” कोई पेपर देने को राजी ही नहीं हो रहा था। आख़िरकार मैंने खुद ही जाकर एक दोस्त के हाथ से अख़बार छीन लिया।
father and son short story in hindi
हेडलाइन पढ़ी तो मेरे चेहरे से हंसी ग़ायब हो गई। उसमें शहर के सबसे भ्रष्ट अधिकारियों की लिस्ट इनकम टैक्स विभाग की किसी फ़ाइल से निकालकर छाप दी गई थी। तीसरे नंबर पर मेरे पापा का नाम था। मुझे नहीं लगता कि मैं वो नज़ारा कभी भूल पाऊंगा। क्लास में एक तरफ़ आख़री चार क़तारों में मैं, मेरे दोस्त और क्लासमेट्स बैठे थे और क्लास के दूसरे छोर पर एक ख़ाली ब्लैकबोर्ड के ठीक सामने, ख़ाली बेंचों पर इस पार एक अख़बार हाथ में लिए, मैं खड़ा था।
इस क्लास के बाहर, इस स्कूल के बाहर, याद शहर में ऐसे ही, इतने हज़ारों चेहरे होंगे… मेरे परिवार पर हंस रहे होंगे, गुस्सा कर रहे होंगे। मेरे पापा का नाम शहर के सबसे भ्रष्ट लोगों में था। कई मिनटों तक मेरे पांव ही वहां से नहीं हिले, जैसे मैं लोहे का एक बुत बन गया था, और ज़मीन एक विशाल चुंबक। मेरे हाथ कांप रहे थे। मुझे चक्कर आ रहा था।
दादाजी का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम रहा था। वही दादाजी, जिन्होंने सिखाया था कि किसी का एक रुपया भी अगर ग़लती से पास रह जाए तो उसे वापस करो, ईमानदार बनो, अच्छा इंसान बनो… मैं धीरे-धीरे चलता हुआ क्लास के बाहर निकला। ऐसा लग रहा था कि मेरी पीठ में हज़ारों तलवारें, तीर,भाले एक साथ घुसे जा रहे थे। असल में ये मेरे दोस्तों की नज़रें थीं, जो मुझे क्लास से निकलते हुए देख रही थी। वही नज़रें, जिनमें मैं आज गिर गया था और एक बेईमान आदमी का बेटा रह गया था।
emotional story of a father and son
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मैं स्कूल से बाहर निकला, रोज़ की तरह ऑटो नहीं पकड़ा, डेढ़ घंटे पागलों की तरह पैदल चलता रहा। घर पहुंचा तो पसीने से लथपथ… क़मीज़, स्कूल की टाई, अस्त-व्यस्त… कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गया। पता ही नहीं चला, कब आंसू निकल पड़े। फ़ोन पर एसएमएस आया। मेरी गर्लफ्रेंड अंजली का था। वो मुझसे मिलना चाहती थी। मैंने फ़ोन किनारे रख दिया। महंगा था फ़ोन, तीस हज़ार रुपए का। पापा ने पिछले जन्मदिन पर तोहफा दिया था। आज इस फ़ोन को छूने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। तीन घंटे वैसे ही पड़ा रहा। फिर अचानक उठा और पापा की स्टडी में चला गया।
एक बदहवास, खोजी कुत्ते की तरह कुछ ढूंढ़ रहा था मैं। शाम को पापा वापस आए। घर पर सब ऐसे बन रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। मैं वापस अपने कमरे से, काग़ज़ के दो पन्ने लेकर पापा की ओर बढ़ा। पापा ने कॉफ़ी किनारे रखी और बोले, “हां… भर दिया बोर्डिंग का फ़ॉर्म? चलो कल भिजवा देता हूं। ये लो पांच हज़ार रुपए, हॉस्टल के लिए शॉपिंग कर लेना।” मैंने कहा, “पापा, ये हॉस्टल का फ़ॉर्म नहीं, कुछ और ढूंढकर लाया हूं आपके कमरे से। ये आपकी सैलरी स्लिप है।
father and his sons story moral
इसमें लिखा है कि आपकी तनख्वाह तीस हज़ार रुपए है। तो हमारे पास ये सब कहां से आया?”कैसे बताऊं आपको कि वो लम्हा क्या था? चौदह साल के एक बच्चे ने अपने पिता से ये पूछने की हिम्मत की थी कि अगर उनकी तनख़्वाह तीस हज़ार रुपए थी तो सारा ऐशो-आराम कहां से आया था? पापा ने सैलरी स्लिप हाथ में ली, और अपने कमरे की ओर चले गए। मम्मी अब तक किचन के बाहर आकर खड़ी हो गई थीं।
गुस्से में तमतमाती हुई बोलीं, “सिद्धांत, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अपने पापा से ऐसे बात करने की? तुम इतने बड़े हो गए हो कि पापा से सवाल-जवाब करने लगे?” उन्हें शायद विश्वास नहीं हो रहा था कि उनका शर्मीला छोटा बेटा, कभी इतने कड़वे सवाल कर सकता है। नौकर एक कोने में दुबक गया और बार-बार वही सब्जियां धोने लगा। क्या मेरे अलावा सब इस अनकही सचाई को जानते थे?
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ना जाने मुझे कहां से उस वक़्त बड़े भाई को जवाब देने की हिम्मत आ गई। उस भाई को जवाब दिया मैंने, जिसके सामने मेरी जुबान कभी नहीं खुलती थी। मैंने कहा, “अगर मुझे पता होता कि ये पैसे बेईमानी के हैं तो कभी नहीं इस्तेमाल करता इन चीज़ों को। तुम्हें तो पता था ना?” भैया ने आग भरी नज़रों से मुझे देखा और इतनी ज़ोर से झापड़ रसीद किया कि मैं बिस्तर पर गिर पड़ा। मेरा अपना घर अचानक मेरे लिए अनजान लोगों से भरा हुआ एक मोहल्ला बन गया था। रात बीत गई।
पापा से मेरा सामना नहीं हुआ। शायद उन्होंने मुझसे इस बारे में बात करने की ज़रूरत ही नहीं समझी। पता नहीं उनके मन में क्या चल रहा होगा। अगली सुबह पापा जल्दी ऑफ़िस चले गए। मैं नाश्ते की मेज़ पर बाहरी महसूस कर रहा था। मम्मी और भैया ने कुछ नहीं कहा, जैसे मैं वहां था ही नहीं। हां, मां का दिल आखिर मां का ही होता है। मेरे खाने की फ़िक्र भी थी। नौकर से बीच-बीच में कह रही थीं कि मुझे और टोस्ट दे दे आकर।
भाई ने तो मेरी तरफ़ देखा ही नहीं। शायद पिछली रात को ज़िंदगी में पहली बार झापड़ का गोल्ड मेडल देकर, और ख़ातिर ना करना चाह रहा हो… शायद उन दोनों ने प्लान पहले से ही तय कर लिया था। मम्मी ने गला साफ़ करते हुए कहा, “बेटा, पापा बड़े दुखी हुए तुम्हारी बात सुनकर। बोले, मुझे यक़ीन नहीं होता कि सिद्धांत ऐसा कह सकता है। उन्हें बहुत तकलीफ पहुंची है। आज शाम जैसे ही घर आएं, उन्हें सॉरी बोल देना। फिर सब ठीक हो जाएगा। ठीक है?”
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मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ। रातभर में मंथन करने के बाद ये योद्धा बस यही इलाज निकाल पाए थे कि मैं पापा से माफ़ी मांग लूं!मैं भी अड़ियल था। बिना कुछ कहे उठा, बैग उठाया और स्कूल को चल दिया। लेकिन वो रास्ता भी ऐसा था जैसे अकेलेपन के एक जंगल से दूसरे जंगल में जा रहा होऊं। रास्ते में कोई अख़बार पढ़ता दिखता तो यही लगता कि पापा की थू-थू कर रहा हो। स्कूल पहुंचा तो यूं महसूस कराया गया कि जैसे कोई मुजरिम कचहरी में दाखिल हुआ हो।
सब दूर-दूर से मुझे देख रहे थे। इतना अकेला शायद मैंने आज तक महसूस नहीं किया था। मैंने अपने सामने चेहरों की भीड़ को घबराते हुए देखा। ऐसा लग रहा था कि कुछ तो मुझे धिक्कार रहे थे, मेरा मज़ाक़ उड़ा रहे थे, और कुछ मेरी क़िस्मत पर अफ़सोस कर रहे थे।
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बस एक ही लड़का था जो मेरे पास आया… मेरा बेस्ट फ्रेंड अभिषेक। कुछ बोला नहीं, बस बेंच पर बग़ल में बैठा रहा। मुझे मालूम था उसके भी मन में वही सब सवाल चल रहे थे जो मेरे मन में थे। मैंने चैन की सांस ली जब मुझे दूर से अपनी गर्लफ्रेंड अंजली आती दिखाई दी। मैंने कहा, “अंजली, बैंकगॉड तुम हो… सॉरी मैं तुम्हारा फ़ोन…” अंजली ने एक बैग बीच में पटका और बोली, “ये सारे गिफ़्ट्स हैं जो तुमने मुझे दिए थे। कोई और लड़की ढूंढ़ लेना जिसे तुम अपने पापा की ली हुई घूस से ख़रीदकर गिफ्ट्स दे सको।”
कितनी आसानी से टूट जाता है सब! एक दिन में पिछली सुबह और आज की सुबह में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। चौबीस घंटे के अंदर मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि मेरे प्यारे पापा कहां गुम हो गए। मेरी गर्लफ्रेंड ने मुझसे रिश्ता तोड़ लिया था और अपने दोस्तों के लिए मैं रातोरात एक अजनबी बन गया था।
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मैं स्कूल से निकल गया और सड़क पर चलने लगा। चारों ओर ट्रैफ़िक का शोर… फेरीवाले सब्जी, फल, रूमाल, प्लास्टिक के खिलौने बेचते हुए… कोई गाड़ी सर्र से बग़ल से निकल गई, ड्राइवर ने किसी तरह मुझे बचाया और चिल्लाता हुआ चला गया, “आंखें नहीं हैं क्या?” आंखें हैं यार। आंखें खुलीं तभी तो ये सच देखा। लेकिन अब क्या करूं इन आंखों का और इस सच का? क्या करूं अपने आपका, जो ना एक बेईमान बाप का बेटा होकर रहने को राज़ी है ना अपने पिता की तकलीफ़ देखना चाहता है।
अगर कोई ईमानदार इंसान होता तो शायद सीधे पुलिस स्टेशन चला जाता, इनकम टैक्सवालों को फ़ोन कर देता। उसी अख़बार के ऑफ़िस में घुस जाता जिसमें मैंने वो ख़बर पढ़ी थी। लेकिन मैं उतना ईमानदार नहीं था। पापा की बेईमानी के पैसों से मजे जो करता रहा था इतने साल। क्यों नहीं पूछा था कभी मैंने ख़ुद से कि जब वर्मा अंकल और पापा साथ-साथ काम करते हैं एक बराबर की पोस्ट पर, तो वो छोटी गाड़ी से क्यों जाते हैं और हमारे पास कैसे बड़ी कार है?
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सच कह रहा था वो नाराज़ ड्राइवर। आंखें नहीं हैं मेरे पास। पता नहीं चला कि कब मैं चलते-चलते उस घर के सामने पहुंच गया जहां बचपन में आम खाए थे और गिल्ली-डंडा खेला था, जहां रात को पंचतंत्र की कहानियां सुनी थीं और एक बुजुर्ग के पांव दबाए थे। हां, मैं दादाजी के घर पहुंच गया था। अंदर जाते ही उनकी गोद में सर रख दिया और बेतहाशा रोने लगा। दादाजी तक सब ख़बर पहुंच गई थी। मेरे बालों में उंगलियां फिराते हुए बोले, “सिद्धांत, अब तू जान गया बेटा कि मुझे पापा के घर में रहना क्यों मंजूर नहीं था?
उनकी गाड़ी में कभी क्यों नहीं बैठता हूं? उनके साथ कभी छुट्टियों पर नहीं जाता हूं? कायर हूं बेटा। अपने बेटे को पुलिस के हवाले करने की हिम्मत मुझमें नहीं है। बस उसकी बेईमानी से मुंह मोड़कर जी रहा हूं।” उस दिन घर पहुंचा तो शायद मम्मी-पापा ने यही सोचा होगा कि अब अक्ल ठिकाने आ गई होगी। मैं किसी से कुछ बोले बिना अपने कमरे में वापस चला गया।
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लेकिन मेरे दादाजी की सिखाई हुई ईमानदारी आज भी मेरे पापा की बेईमानी पर भारी पड़ रही थी। खुरच-खुरचकर निकाल देना चाहता था अपने शरीर से वो सारे ऐश-ओ-आराम, जो अपने बेईमान पापा ने मुझे पर लपेटे थे। बाहर गाड़ी रुकी। पापा घर आ चुके थे। थोड़ी देर बाद नौकर दरवाज़ा खटखटाकर कमरे के अंदर आया और बोला, “साहब बुला रहे हैं।” मैंने कहा, “आता हूं।” मैं बाहर गया तो लगा जैसे मैं बकरी चुरानेवाला मुजरिम हूं और मेरे सामने पूरी पंचायत लगी थी। पापा, मम्मी और भैया बैठे थे। पापा ने कहा, “तुम्हारी मम्मी ने बताया कि तुम बड़ा सॉरी फ़ील कर रहे हो। इट्स ओके।
चलो, कहीं बाहर चलते हैं खाना खाने। तुम्हारी फ़ेवरिट… चाइनीज।” शायद सब सोच रहे थे कि मैं दौड़कर पापा के गले लग जाऊंगा। मैंने पापा से कहा, “पापा, मैं ज़रूर जाऊंगा… हॉस्टल। डॉरमिटरी में सोऊंगा। बाथरूम शेयर करूंगा और गंदी पीली दाल खाऊंगा। मैंने फॉर्म जमा कर दिया है। आप मेरे पापा हैं। आपसे हमेशा प्यार करूंगा, रिस्पेक्ट का पता नहीं। हॉस्टल की फ़ीस को मैं आपका दिया हुआ लोन समझूगा, बहुत जल्दी चुका दूंगा। और हां, चाइनीज खाने आपलोग चले जाओ। मैं अंजली के साथ पावभाजी खाने जा रहा हूं।” बस इतनी सी थी यह कहानी…